राम बिनु तन को ताप न जाई - कबीर साहब

2025.04.20 2 min read · 345 words

  • poem
  • राम बिनु तन को ताप न जाई ।
    जल में अगन रही अधिकाई ॥
    राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
    तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।
    जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥
    राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
    तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।
    दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥
    राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
    तुम सद्गुरु मैं नौतम चेला ।
    कहै कबीर राम रमूं अकेला ॥
    राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
    

    यह भजन कबीर साहब द्वारा रचित है और इसका मुख्य विषय ‘राम’ (ईश्वर या आध्यात्मिक सत्य) के बिना शरीर और मन की अशांति है। यह भजन दर्शाता है कि राम के बिना जीवन में शांति नहीं मिल सकती, ठीक वैसे ही जैसे एक मछली पानी के बिना जीवित नहीं रह सकती। यह भजन गुरु-शिष्य के संबंध और आध्यात्मिक मिलन की इच्छा पर भी प्रकाश डालता है।

    सार संक्षेप में:

    • राम बिनु तन को ताप न जाई: इसका अर्थ है कि राम (ईश्वर/सत्य) के बिना शरीर का कष्ट (अशांति, दुख) दूर नहीं होता।
    • जल में अगन रही अधिकाई: यह पंक्ति बताती है कि बिना राम के, भले ही व्यक्ति जल (सांसारिक सुख) में हो, उसके अंदर अग्नि (अशांति) बनी रहती है।
    • तुम जलनिधि मैं जलकर मीना, जल में रहहि जलहि बिनु जीना: यहाँ भक्त खुद को मछली और राम को समुद्र बताता है, यह दर्शाता है कि जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती, वैसे ही भक्त राम के बिना नहीं रह सकता।
    • तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा, दरसन देहु भाग बड़ मोरा: भक्त राम को पिंजरा और खुद को तोता कहता है, जो राम के दर्शन की इच्छा रखता है। यह राम के दर्शन को अपना सौभाग्य मानता है।
    • तुम सद्गुरु मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला: कबीर कहते हैं कि राम उनके सद्गुरु हैं और वे उनके नौतम (नये) चेला हैं, और वे राम में अकेले रमना चाहते हैं (एकांत में राम का ध्यान करना)। कुल मिलाकर, यह भजन ईश्वर के प्रति अटूट भक्ति, आध्यात्मिक शांति की खोज और गुरु की महत्ता पर केंद्रित है।

    Last updated: 2025-04-20T17:31:28+05:30